शनिवार, 15 नवंबर 2008

मन के दरवाज़े सजा

जग नहीं सुंदर तो अपनी सोच को पहले सजा
प्यार की झालर से अपने मन के दरवाज़े सजा

जानना चाहे अगर जीवन की सजधज का रहस्य
दिल में आशाएँ सजा, एहसास में सपने सजा

आने वाले, कुछ-न-कुछ तो हौसला लेते रहें
रक्त से तलुओं के यह काँटों-भरे रस्ते सजा

सारी बस्ती गर नहीं महकी तो क्या तेरी महक
अपने घर की मेज़ पर तू लाख गुल-बूटे सजा

लोकसेवा नाम है जिसका वो है सौदागरी
आंख में वादे सजा, होठों में कुछ नारे सज़ा

डा गिरिराजशरण अग्रवाल

2 टिप्‍पणियां:

संगीता-जीवन सफ़र ने कहा…

जग नहीं सुंदर तो अपनी सोच को पहले सजा
प्यार की झालर से अपने मन के दरवाज़े सजा
बहुत सुंदर रचना है आपको बहुत-बहुत बधाई/

AJAY AMITABH SUMAN ने कहा…

आप अच्छा लिखते हैं