रविवार, 16 नवंबर 2008

दिल में हो विश्वास तो

दिल में हो विश्वास तो ख़तरा नहीं मंझधार का
है भँवर तो दोस्तो! देखा हुआ सौ बार का

हम अगर समझे हैं तो कहती है कलाई की घड़ी
साथ देना है सभी को वक्त की रफ़्तार का

प्रेम की बाहों में है सिमटा हुआ सारा जगत्
जो नहीं पूजाघरों का, वो है मज़हब प्यार का

ख़ुश्क जंगल को भिगोदें तुम अगर सहयोग दो
आओ अब मिल-जुल के मोड़ें रुख़ नदी की धार का

आदमी सचमुच वही है, जिसका जीवन-सार हो
दर्द भी सारे जहां का, ध्यान भी घर-बार का

डा गिरिराजशरण अग्रवाल

2 टिप्‍पणियां:

दिगम्बर नासवा ने कहा…

सोच लेना आदमीयत का पतन होने को है
दर्द में हमदर्दियों की जब कमी होने लगे

आप जब लिखेंगे तो काव्य धारा तो बहेगी ही
सुंदर रचना

डा गिरिराजशरण अग्रवाल ने कहा…

शुक्रिया दिगम्बर जी